तब का सिनेमा

 वो सिनेमा के शुरुआत के दिन थे और तब मुक फ़िल्में बनती थी लोग मुक सिनेमा भी देखते थे. बस एक ज़िज्ञासा थी इस अद्भुत अविष्कार के प्रति और मनोरंजन तो था ही.

दादा फालके जैसे सिनेमाकारों ने अपनी पूरी मेहनत और जमापूंजी झोंक दी थी सिनेमा बनाने और उसे स्थापित करने में तब कंही जाकर हम आज का सिनेमा देख रहे है.

उस दौर में महिलाओं के रोल भी पुरुष ही करते थे. फिर भी सिनेमा का आकर्षण बढ़ रहा था. समाज में सिनेमा की स्वीकार्यता बढ़ रही थी.

सिनेमा ने जीवन में और लोगों के दिल में जगह बना ली थी. आहिस्ते -आहिस्ते सिनेमा का वनवास खत्म हुआ. धार्मिक और शिक्षाप्रद फिल्मों ने सिनेमा को जनजीवन में शामिल किया और इस तरह से विधिवत मनोरंजक सिनेमा के दौर की शुरुआत हो गईं.

@कॉपी राइट 

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