style="text-align: left;">आज पुरानी फ़िल्म देखी पहेली और देखती रह गईं चित्तरंजन ऐसा कोई अनजाना सा हीरो पर मेरा अपना जाना पहचाना सा गांव... मेरा अपना गांव... अपने लोग... अपनी मिट्टी की सोंधी सी खुशबू.... वो सब कुछ था जो मेरी यादों में बसता है प्रेमचंद का मूर्त गांव.... जिसे ताराचंद बड़जात्या अपनी फिल्मों में सजीव करते रहें और उनकी फिल्मों से गांव की माटी की सोंधी महक आती रही..
वो वातावरण का सजीव चित्रण सब कुछ मेरा नितांत अपना जो सपना सा लगता है...
मै वंही वंही सारा गांव!ओ!मितवा!..
इस गाने को जितना ही सुनती हूँ ऐसा लगता है सारी रात सुनती जाऊ... उस दौर में ताराचंद जी ने कैसे भारतीय संस्कृति को जीवित किया और संस्कार युवाओं को देकर मनोरंजन जगत में जगह बनाई थी... ये अलग कहानी है पर आज ये फ़िल्म अविस्मरणीय पलों को संजोती है.
नमिता का मोहक सा सौंदर्य उसकी सहेली चम्पा का चुलबुलापन, दादी माँ का स्नेह, मौसी का बेटे की राह देखते गुजर जाना और गोवर्धन की राह तकती वो धैर्य वाली नायिका..
ओह!वो सारी स्मृतियाँ और रविंद्र जैन का संगीत... मनमोहक ये सारा सारा गांव!ओ!मितवा!मै वंही!वंही सारा गांव!..
ऐसे शब्द जो अपने आप के भीतर से निकलते महसूस होते है अपने आप से मिलाते है और भारतीय गाँवो की सच्चाई को सोंधेपन को आत्मीयता को जीवित करते है. वाकई ये मूवी और गाने न केवल पुरानी यादों को सींचते है वरन पुराने बिछड़े लोगों से मिलाते है इसके लिए ताराचंद जी की ये सादगी प्रस्तुति सार्थक है वो सिनेमा के प्रेमचंद थे जिन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन को अमर कर दिया वंही रविंद्र जैन के संगीत और डायरेक्शन के साथ नमिता चंद्रा और समस्त साथी कलाकारों के लिए कह सकते है जिन्होंने दिल से अभिनय कर इस कृति को अमर बना दिया. 🌹🌹🌹🌹
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